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चायवाला बंटी

अपना लेख
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चायवाला बंटी
यह कहानी है दो चाय बेचने वाले छोटे बच्चों की जिनकी उम्र 8 साल और १० साल के लगभग थी, जब मैनें अपनी इंजीनियरिंग की पढाई बस पूरी ही की थी। छोटे वाले का नाम बंटी और बड़े वाले का नाम छोटू था। वैसे दुकान पर तो अधिकतर वही दोनों बैठते थे, चाय के साथ उनकी दुकान पर आपको धुम्रपान के सामान के अलावा चाय के साथ खाने वाली चाय-साय भी उपलब्ध थी। दोनों सगे भाई अपने चार भाईयों में से सबसे छोटे थे, उन दोनों से बड़े दोनों भाई जिनका नाम सूरज और रंजीत था, उनमे से रंजीत सबसे बड़ा सुबह मजदूरी पर चला जाता था और शाम को दुकान सम्भालता था, कभी-कभी काम न मिलने पर सुबह को भी दुकान पर बैठता था और सूरज सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जो केवल छुट्टी वाले दिनों में ही दुकान पर आता था और कभी-कभार बाकी सबकी अनुपस्थिति में दुकान सम्भालने आ जाता था।
मैं और मेरे कुछ कॉलेज फ्रेंड्स रोजाना सुबह चाय की चुस्की लेने और इसी बहाने सुबह टहलने निकल जाया करते थे। कभी-कभार रात के 11-12 बजे भी टहलते हुए चाय पीने निकल जाया करते थे। हमारे फ्लैट से लगभग 3-4 मिनट वाकिंग डिस्टेंस पर उनकी दुकान थी। जब हम उस क्षेत्र में नए थे तो यही दुकान वाले बच्चे, हमारे जान-पहचान वाले बने, उन्हीं से हमें उस क्षेत्र की पुरानी जानकारियाँ मिली और कहाँ पर क्या है ये सब पता चला जिससे हम मित्रों को वहाँ रहने में कोई परेशानी नहीं हुई। और इस तरह से हमारी जान-पहचान आपस में बढती रही और हम उनके और क्षेत्र के बारे में और वो हमारे बारे में जान पाये। जब सुबह हम चाय पीने जाते थे तो हमें बंटी और छोटू दुकान पर ही मिलते थे। बंटी सुबह 6 बजे तक वो एक हाथ भर की जगह में अस्थायी बनी दुकान खोल चुका होता था और हम उसके पहले ग्राहक होते थे। सुबह-सुबह फ्रेश होने के बाद का वो स्नान और फिर चाय की चुस्की के साथ सूर्योदय का वो दृश्य काफी सुहावना हुआ करता था। चायवाले उस बंटी की प्यारी सी बचपने की मुस्कान और उसका यह कहना हर रोज, “भैया बस रुको, आपके लिए चाय तैयार है और आपके साथ वाले कहाँ हैं?” “वो आ रहे हैं, मंदिर गए हैं” मैं कहता और पूंछता, “और क्या हालचाल?” “बढ़िया है भैया” बंटी, “आप नहीं जाते मंदिर?” मैं, “बस कुछ ऐसा ही समझ लो भाई”
एकबार वो दोनों भाई, बंटी और छोटू, दुकान पर थे तो मैंने कहा, “क्या हाल बंटी?” तो उसने हँसते हुए कहा, “नहीं भैया, मैं छोटू हूँ, क्या भैया! आप हमारा नाम भूल जाते हैं।“ मैं मुस्करा देता और मन ही मन कहता कि क्या करूँ तुम दोनों के नाम ही ऐसे हैं। बड़े का नाम छोटू और छोटे का नाम बंटी; जबकि छोटे का नाम छोटू होता है।
शुरुवात में ही जब हम वहाँ जाया करते थे तो एकबार उनका बड़ा भाई रंजीत भी वहाँ था, तो मैनें पूँछा इन्हें स्कूल क्यों नही भेजते? तो वो बोले, “भैया हम तो भेजते हैं, ये दोनों का नाम भी लिखवायें हैं, पर ये बंटी तो जाता ही नहीं है और छोटू जाता है, लेकिन ये भी कभी-कभी नहीं जाता है। हम तो डाँटते-मारते रहते हैं, पर ये जाते ही नहीं। मैंने दोनों से पूँछा, “क्यों नहीं जाते तुम दोनों स्कूल?” तो छोटू कहता है कि भैया रोज जा जाकर स्कूल थक जाता हूँ; और जब बंटी की ओर देखा तो वो बिना कुछ कहे वहाँ से भाग गया। तो रंजीत कहता है देखा भैया कैसे भाग गया पढाई की बात सुनकर, हम जानते हैं पढ़ाई का महत्व, हम बारहवीं तक ही पढ़े हैं, दुनिया देखे हैं। मजदूरी करके जैसे-तैसे पैसे जमा कर पढ़ा और चाय की दुकान खोल ली, यही पड़ोस वाली मेट्रो स्टेशन के पास वाली झुग्गी में रहता हूँ, सोचा कि अब खुद बहुत पढ़ लिया भाईयों को पढ़ा दूँ पर ये कोई मानते नहीं हैं। ये बंटी जिसमे ज्यादा ही नौटंकी दिखाता है कुछ कहो तो भाग जाता है। अब ये तो मजबूरी समझता नहीं, तुम्ही बताओ भैया, क्या करूँ? मैं उनकी बात सुनकर बस ‘हम्म’ ही कर पाया और कहा कि क्या कर सकते हो अब, समझ में आ जाये तो अच्छी बात है। तो रंजीत कहता है कि झुग्गी वालों के बच्चे वैसे भी नहीं पढ़-पाते और भगवान की दुआ से पढने का मौका मिला इन्हें तो ये पढना नहीं चाहते हैं, अब बताओं इसमें ना भगवान का दोष दे सकता हूँ ना ही अपना, बस आप बुरा ना माने इस बात का, जो कहने वाला हूँ, बस आप जैसे अच्छे-भले लोग यही कहेंगें कि ये इन्सान ही इनसे इस छोटी उम्र में काम करा रहा है। मैंने कहा आप कुछ हद तक सही कह रहे हैं, पर मैंने ये भी सोचा था कि शयद कोई मजबूरी हो; परिवार में। पर यहाँ तो कुछ और ही है। तो वो बोले मजबूरी तो है लेकिन हम फिर भी इन्हें पढ़ाना चाहते हैं; अब आप ही बताइए जिम्मेदार कौन है इसके पीछे?
“अब यही प्रश्न दिमाग कौंधा गया, मैं कुछ देर सोचा तो बहुत कारण सामने आ गये पर मैंने उनसे कहा नहीं “

द्वारा:- राघवेन्द्र सिंह

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