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क्या हिंदी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्य धारा में लायी जा सकती है ? अगर हाँ, तो किस प्रकार ? अगर नहीं तो क्यों नहीं ?
हाँ, हिंदी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्या धरा में लायी जा सकती है। यह बात सर्वथा सर्वविदित है कि ऐसा सम्भव है बस लोगों को जरूरत है एक नेतृत्व की। और हम भारतियों की सालों दर सालों से यही आदत सी है कि हमारा नेतृत्व करने वाला जब आगे आता है तो हम हर आँधी का सामना करने को तैयार हो जातें है। और इन सब के उदाहरणों में गाँधी जी, नेता जी, पटेल जी जैसे और भी महापुरुष है; और अभी के ताज़ा उदाहरणों में आप अन्ना जी का भ्रष्टाचार के खिलाप और लोकपाल के लिए नेतृत्व आपके सामने है। ये नेतृत्व करने वाले किसी बाहरी दुनियां से नहीं आते बल्कि यह भी हममें से ही होतें हैं। ये औरों की तरह एक-दूसरें का मुहँ नही ताकते बस एक सही राह पकड़ उस पर चल देतें और लोग खिंचे चले आते हैं क्यूँकि उन्हें नेतृत्व चाहिए था जो कि उन्हें मिल गया। बस कुछ ऐसा ही नेतृत्व चाहिए हिंदी को सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्यधारा में लानें को। हम लोगों के बीच से ऐसा नेतृत्वकर्ता कैसे निकले इस पर मेरे द्वारा लिखित कुछ काव्य पंक्तियाँ आपके समक्ष प्रस्तुत हैं-
“ क्यों पड़े – पड़े यूँ सोचा करते हो।
सर के बालों को नोचा करते हो।
खबरें अच्छी नहीं लगती
राजनीति सच्ची नही लगती
सामाजिक,राजनीतिक बदलाव चाहते हो।
पर तुम यह कर नहीं पाते हो।
नौकरी मिल जा रही है लोगों को
अंग्रेजी आ रही है जो लोगों को
हिंदी भुला अंग्रेजी की तरफ भागे जाते हो।
हिंदी को अपनाने में तुम घबराते हो।
तुम आगे आओं, हाथ बढाओं
ना सरमाओं ना अब हिचकिचाओं
सभी समझते हैं जब तुम हिंदी में बतलाते हो।
मुहँ ताका करतें जब तुम अंग्रेजी में बडबडाते हो।
कुछ समझ में आती है
कुछ समझ में ना आती है
हिंदी को क्यूँ नहीं तुम पनपाते हो।
विश्वस्तर पर क्यूँ नहीं लाते हो।
अपनी भाषा इस्तेमाल से किसी का विकास नहीं रुकता
और वो समाज-देश किसी के सामने कभीं नहीं झुकता
बाकी सब पीछे आतें हैं जब तुम आगे जाते हो।
नाम लेते हैं तुम्हारा जब तुम नेतृत्व सँभालते हो।
लोगों का यश भी मिलेगा, ख्याति मिलेगी
जब पहल की पताका तुम्हारे हाथ होगी
तुम क्यूँ नही सेनानायक बनते हो।
सेना जैसा क्यूँ बनना चाहते हो।
जब तक सेनानायक ना कहे
सैनिक मूरत बनें खड़े रहें
आ जाओं बचाव में हिंदी के किसका इंतज़ार करतें हो।
आयेंगें सब साथ तुम्हारे जिनका तुम इंतज़ार करते हो। “
-राघवेन्द्र सिंह
उपरोक्त पंक्तिओं से जैसे पता चल रहा है कि एक नेतृत्व की जरूरत है और उसको सहयोग देने वाले लोगों की जो हिंदी को हर क्षेत्र में फैलाये, चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, औधोगिक, रोजगार का क्षेत्र हो। सभी राष्ट्र जहाँ पर उनकी मातृभाषा प्रयोग में लायी जाती है वो या तो विकसित हैं या फिर विकासशील देशों की श्रेणी में काफी आगे बढ़ रहें हैं और वहाँ के निवासियों में अपनी मातृभाषा के लिए काफी सम्मान है जिससे उन्हें भाषा के पारस्परिक सम्बंधों में कोई दिक्क़त नहीं आती। और जिन-जिन देशों में उनकी मातृभाषा को सम्मान नहीं मिल पा रहा है, लोग दूसरी भाषाओँ की और भाग रहें हैं वहाँ पारस्परिक भाषीय सम्बंधों का आभाव है; लोग एक प्रकार की मानसिक बिमारी या फिर कहें कि मानसिक गुलामी का शिकार हो रहें हैं।
जो अपना है उसे सम्मान के साथ अपने पास रखो और जो दूसरा है उसे सम्मान दो, लेकिन अपने पास न रख लो; अपने को हटाकर। अपने खेतों में ऐसा पेड़ क्या लगाना जो तुम्हारी अपनी फसल को बरबाद कर दे और तुम्हे सीमित क्षेत्र तक में ही छाया दे ज्यादा भाषाओँ का ज्ञान माना कि अच्छा है लेकिन ऐसे ज्ञान का क्या फायदा जो तुम्हारे नकुसान का कारण बनें। हम सभी को ये सब ध्यान में रखते हुए एक प्रण लेना चाहिए-
“ मातृभाषा हिंदी हम तुम्हे तुम्हारा
सम्मान दिलायेंगें
गौरव के साथ विश्व-स्तरीय भाषा तुम्हें
हम बनायेंगें “
-राघवेन्द्र सिंह
जय हिंदी ! जय भारत !
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