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‘ हिंदी बाज़ार की भाषा है, गर्व की नहीं ’ या ‘ हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है ‘ – क्या कहना है आपका ?

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‘ हिंदी बाज़ार की भाषा है, गर्व की नहीं ’ या ‘ हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है ‘ – क्या कहना है आपका ?

“हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है“ ये बात कुछ हद तक शत-प्रतिशत सच है, क्युकिं हम में से कई लोग या फिर कहें कि सभी लोग इस बात से चिर-परिचित है और उन्हें ये सच मन ही मन स्वीकार्य भी है। अगर आप किसी मंच से किसी जनसमूह को संबोधित करते हुए ये बोलो कि हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है तो लोग हो सकता है तालियाँ पीटें और हर्षोंध्वनि से स्वीकृति देंगें, इसकी सत्यता पर। और आपस में घुसुर-फुसुर करते हुए ये भी बड़ी ख़ुशी के साथ और गर्व से एक-दूसरे से कहेंगें की बात तो एकदम सटीक कह रहा है।
मेरे द्वारा लिखित कुछ पंक्तियाँ जो इस विषय पर एक सत्य उजागर कर रहीं हैं; आपके सामने प्रस्तुत हैं-
“बाप करता है मजदूरी, करता है
खेतों में जुताई,गोड़ाई,और निराई।
लड़िका का पढाई खातिर भेजा है
इसकूल जोरि-बीनि एक-एक पाई।
वाही लड़िका पढ़-लिखकर अब
रोब झाड़ता है, अपने बापू को
दोस्तन से मिलवानें में सरमाई।
आ गई बीच में जो हिंदी गरीबी
अनपढ़ों की खाईं। कुछ शब्दों की
भाषा हमारी मातृभाषा हिंदी की
विराट शब्दावली को खा गई।
कुछ ऐसे ही किस्सों में तो
बस इसकी लाचारी समा गई।
लाचार नहीं ‘राघवेन्द्र’ हमारी हिंदी भाषा
लोगों की लाचारी इसे लाचार बना गई। ”
-राघवेन्द्र सिंह
अब उपरोक्त चंद पंक्तियाँ पढ़कर आप समझ सकतें हैं कि हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बन कर क्यूँ रह गई है। कुछ मित्र मेरी इस बात से भी सहमत होंगें कि अगर यही विषय किसी जनसमूह में एक वाद-विवाद की तरह चल रहा हो तो ‘अधिकतर से अधिक’ लोग यही कहेंगें कि नहीं आप गलत हो ‘हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर नहीं रह गई है’
और इस पर काफी नाराज़ भी होंगें, तरह-तरह के तर्क देंगें, अपने पक्ष में। अब बतातें हैं आपको एक और सच इन्हीं ‘अधिकतर से अधिक’ में से अधिकतर लोग हिंदी नहीं बोलते बल्कि इसका बिगड़ा रूप ‘हिंग्लिश से भी ज्यादा’ (अधिकतम अंग्रेजी और नगण्य हिंदी) बोलतें हैं। लोगों ने अपनी मानसिकता को ही ऐसा बना लिया है और ये सब देन है अंग्रेजों की गुलामी की। वो अंग्रेज़ तो चले गये कई सैकड़ों साल देश को गुलाम बनाकर, राज करके लेकिन उनकी गुलामी का ही असर है कि जाते-जाते वो देश की सत्ता हमारे लोगों को सौंप कर चलें तो गए पर वो हमारी मानसिकता को आजाद नहीं करके गए। और हम उसके गुलाम बने रहे; शायद बनें रहेंगें? लोगों ने जेंटलमैन बनना पसंद किया और कर भी रहे हैं और इनके बीच वो सज्जन, कहीं अंग्रेजों के जाने के बाद गुम होता जा रहा है बस दिखता है तो इन्हीं हिंदी को दिल से, मानसिक अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त लोगों में। यही मानसिक गुलामी का परिणाम है कि बस यहीं पर आकर यह बिमारी या फिर कहें कि हिंदी भाषा बोलने वालें लोगों की कमी का नाकुसान भुगतना पड़ता है; हमारी हिंदी भाषा को और हिंदी बन जाती है गरीबों और अनपढ़ों की भाषा।
अगर आप सब चाहतें हैं कि हमारी हिंदी भाषा जो कि हमारी मातृभाषा है वो एक मात्र भाषा ना रह जाये तो आप इसे गरीबों, अनपढ़ों की भाषा ना बताकर या ना बनाकर इसे गरीबों-अमीरों, पढ़े-लिखें, अनपढ़ों सबकी भाषा बनायें। और यह सब सम्भव है जब आप मौखिक, लिखित, बोलचाल, सभी जगह इसका प्रयोग हिंगलिश की गुलामी से मुक्त होकर एक सम्मान और गर्व के साथ हिंदी का प्रयोग करें।
जय हिन्द ! जय हिंदी !

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